बाल-विवाह की अनकही कहानी


आओ तुमको एक बात बताऊँ,
एक गुड़िया की कहानी सुनाऊँ।

कितना बताऊँ, कितना छुपाऊं,
क्या तुम उसको समझोगे,
या फिर मेरी कहानी सुनकर तुम बस यूँ ही चल दोगे।

बात है कुछ सालों पुरानी,
कौन-सा साल क्या तारिख,
ठीक-ठाक कुछ याद नहीं,
थी वो कुछ बारह-तेरह साल की,
मगर ठीक-ठाक कुछ याद नहीं।

छोड़ों ये सब उम्र और साल,
अब मुद्दे पर आते हैं,
कैसे छीनता है बचपन तुमको आज बताते हैं।

थी वो छोटी बच्ची ही तो,
दिल से भी थी सच्ची वो तो,
मासूम थी, नादान थी वो,
उम्र की भी कच्ची थी वो।

उसके पास थी इक गुड़िया, और एक गुड्डा रखती थीं,
रोज खेल-खेल में वो उनकी शादी करती थी।

मज़ा बड़ा उसे आता देख के गुड्डे की शेरवानी और दुल्हन का जोड़ा,
क्या पता था उसको की, उसकी माँ भी लाई है उसके नाप का इक जोड़ा।

खुश हो गयी थी वो भी की उसको भी दुल्हन की तरह सजाएंगे,
लेकिन थी वो अनजान इस बात से की, अब उसको उसके पीहर से दूर ले जाएंगे।

छूट गया घर - आँगन, छुट गया स्कूल,
उस बच्ची से कहती सास "तू है नामाकूल"।

छोटी-सी वो बच्ची थी कहाँ उसे कुछ आता था,
फिर भी घर मे हर कोई उसपर रौब जमाता था,
कभी चोट उसे लग जाती, कभी हाथ जल जाता था,
पर माँ की तरह उसके ज़ख्मों पर कोई ना मरहम लगाता था। 

रोती थी, बिलखती थी, किसको बताती वो अपना दुख,
माँ तो कहती थी कि ब्याह के बाद मिलता है सुख।

कहाँ है वो सुख-चैन, कहाँ है आराम,
जब से आयी थी सासरे में सब करवाते  उससे काम।

छुट गया बचपन पीछे, वक़्त से पहले आयी जवानी,
धुल गयी मासूमियत आंसुओं से, भूल गयी नादानी।

अब क्या सुनाऊँ किस्सा तुम्हें, क्या सुनाऊँ कहानी,
मालूम है मुझे की सुनकर ये किस्सा आ गया है आपकी आँखों में पानी,
मगर सच में आज भी कई गाँवों में जो ढूंढने जाओगे तो मिलेंगी,
ऐसी कई बाल - विवाह की अनकही कहानी। 

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