रंग ज़िन्दगी के जो अब तक देखें हैं
यूँ तो देखे हैं कई रंग मैंने ज़िंदगी के अब तक,
ना जाने और कितने रंग दिखाएगी ये ज़िंदगी कहाँ तक और कब तक...
देखा था एक रंग मैंने अपने बचपन में जो सबका अक्सर रंगीन होता है,
मगर मेरे लिए वो मानो जैसे रंग हीन था,
मेरा बचपन, बचकाना नहीं बड़प्पन का शौकीन था...
मेरा बचपन, बचपन में ही सीख गया था अपने सपनों को तकिये के नीचे दबा कर रखना,
मेरी आँखों ने भी सीख लिया था माँ - बाबा से अपने आँसू छुपा कर रखना...
कोई पूछता था कि कैसे हो, तो बस सर हिला दिया करती थी,
माँ जब पूछती थी "कुछ चाहिए तो नहीं तुझे" तो "नहीं माँ" कह कर कई बार झूठ बता दिया करती थी...
फिर सामना हुआ जवानी के रंग से,
ये बचपन के जैसे पूरी तरह नहीं मगर हाँ, ये भी कुछ बेरंग थे...
बचपन में दोस्त कभी बनाये नहीं,
तो जवानी में भी वो साथ आए नहीं...
शायद ये जवानी कुछ जादा ही मेहरबान थी, तभी तो मुहब्बत और नौकरी दोनों एक साथ मिल गई थी,
यूँ तो मुझे खुश होना चाहिए था, मगर नौकरी और मुहब्बत के बीच मेरी तो कैलक्यूलेशन ही हिल गई थी ...
जो नौकरी संभालती तो मुहब्बत फीकी पड़ रही थी,
और मुहब्बत सम्भालने जाती तो नौकरी मे ढीली पड़ रही थी...
मैं तंग आगयी थी, देख कर मुहब्बत और नौकरी के रंग,
ऊब गयी थी देखकर उन दोनों के ढंग,
सोचती थी कि इससे तो अच्छी थी पहले ही ज़िंदगी जब हुआ करती थी बेरंग...
फिर सोचा दोनों को एक साथ छोड़ दूँ, दोनों से रिश्ता तोड़ दूँ,
मगर कर ना सकी नौकरी को खुद से जुदा, क्यूँकी मुझपर घर की ज़िम्मेदारी थी,
हाँ दोस्तों क्यूँकी नौकरी, मुहब्बत से ज़्यादा भारी थी...
अब मैंने नौकरी के हिसाब से अपने ढंग बदल लिए थे,
इसीलिए ज़िंदगी ने भी अपने कुछ रंग बदल लिए थे...
इसके बाद कहानी खत्म नहीं हुई, मैं अब भी उसी जवानी के दौर में हूँ,
पहले फंसी हुई थी मुहब्बत और नौकरी के बीच, और,अब पैसे और नाम कमाने की दौड़ में हूँ...
अब मुहब्बत कर ली है मैंने अपनी जिम्मेदारियों और सपनों के साथ,
जो बचे हुए रंग हैं मेरी ज़िंदगी में, बस वही बांट लेती हूँ कुछ गिने-चुने अपनों के साथ...
ना जाने और कितने रंग दिखाएगी ये ज़िंदगी कहाँ तक और कब तक...
देखा था एक रंग मैंने अपने बचपन में जो सबका अक्सर रंगीन होता है,
मगर मेरे लिए वो मानो जैसे रंग हीन था,
मेरा बचपन, बचकाना नहीं बड़प्पन का शौकीन था...
मेरा बचपन, बचपन में ही सीख गया था अपने सपनों को तकिये के नीचे दबा कर रखना,
मेरी आँखों ने भी सीख लिया था माँ - बाबा से अपने आँसू छुपा कर रखना...
कोई पूछता था कि कैसे हो, तो बस सर हिला दिया करती थी,
माँ जब पूछती थी "कुछ चाहिए तो नहीं तुझे" तो "नहीं माँ" कह कर कई बार झूठ बता दिया करती थी...
फिर सामना हुआ जवानी के रंग से,
ये बचपन के जैसे पूरी तरह नहीं मगर हाँ, ये भी कुछ बेरंग थे...
बचपन में दोस्त कभी बनाये नहीं,
तो जवानी में भी वो साथ आए नहीं...
शायद ये जवानी कुछ जादा ही मेहरबान थी, तभी तो मुहब्बत और नौकरी दोनों एक साथ मिल गई थी,
यूँ तो मुझे खुश होना चाहिए था, मगर नौकरी और मुहब्बत के बीच मेरी तो कैलक्यूलेशन ही हिल गई थी ...
जो नौकरी संभालती तो मुहब्बत फीकी पड़ रही थी,
और मुहब्बत सम्भालने जाती तो नौकरी मे ढीली पड़ रही थी...
मैं तंग आगयी थी, देख कर मुहब्बत और नौकरी के रंग,
ऊब गयी थी देखकर उन दोनों के ढंग,
सोचती थी कि इससे तो अच्छी थी पहले ही ज़िंदगी जब हुआ करती थी बेरंग...
फिर सोचा दोनों को एक साथ छोड़ दूँ, दोनों से रिश्ता तोड़ दूँ,
मगर कर ना सकी नौकरी को खुद से जुदा, क्यूँकी मुझपर घर की ज़िम्मेदारी थी,
हाँ दोस्तों क्यूँकी नौकरी, मुहब्बत से ज़्यादा भारी थी...
अब मैंने नौकरी के हिसाब से अपने ढंग बदल लिए थे,
इसीलिए ज़िंदगी ने भी अपने कुछ रंग बदल लिए थे...
इसके बाद कहानी खत्म नहीं हुई, मैं अब भी उसी जवानी के दौर में हूँ,
पहले फंसी हुई थी मुहब्बत और नौकरी के बीच, और,अब पैसे और नाम कमाने की दौड़ में हूँ...
अब मुहब्बत कर ली है मैंने अपनी जिम्मेदारियों और सपनों के साथ,
जो बचे हुए रंग हैं मेरी ज़िंदगी में, बस वही बांट लेती हूँ कुछ गिने-चुने अपनों के साथ...
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Bhut hi behtareen trh se Apne Jeevan ko vykt Kia h., Awesome.. mam
ReplyDeleteBehtareen
ReplyDeleteY waahhhh..bahut khub...
ReplyDeleteWow
ReplyDeleteBhot khub
ReplyDeleteHaseen rachna
ReplyDeleteHassen Rachna
ReplyDeleteWell define
ReplyDeleteYahi to life cycle he baby...
ReplyDeleteBachpan kab nikal gaya,
Jawani kisi ne ji bhar ji nhi,
Bache kab bade ho gaye,
Aur hum kab jawan se budhe ho gaye..
Nicely written..
Keep writing 💐
Amazing..������
ReplyDeleteBeautiful lines..
ReplyDeleteNice❤️
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